यूँ एक शाम को जब,
मैं अकेला ....
दूर कहीं एक आवारा पत्ता,
संग हवा के हो चला ...
बहते बहते वो हवा,
करीब जब आई...
उस पत्ते को न छोड़ा उसने,
साथ उसे भी लायी....
कभी सरसराहट
कभी खरखराहट
फिर वही
खामोश मुस्कराहट ....
संग हवा के उड़ने को,
जी खोल गया...
और सारे शोर में,
चुपके से कुछ बोल गया...
स्तब्ध हतप्रभ ,
शायद मैंने कुछ सुना नहीं...
क्या कोई मकसद था ?
जो किसी और को चुना नहीं ...
दो चार बातें और करने को,
दिल हुआ...
पर वो सारे पत्तों में जाकर,
मिल गया...
और फिर दिखा नहीं....
वो हवा, दबी हुई किसी बात को,
हवा दे गयी ...
अपने इशारे से,
एक अदा दे गयी....
वो हवा भी फिर दिखी नहीं,
मैं बार आखें मलता हूँ .....
अकेले में,
मैं हवा से बातें करता हूँ.....